पत्थर नहीं, वोट को बनाएं विरोध का हथियार
जिस समय हमलोग लोकनायक जेपी के नेतृत्व में बदलाव के लिए आंदोलन कर रहे थे, उन दिनों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी के नेता विरोध की हर आवाज के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ बताते थे। जेपी तक को नहीं बक्शा गया। आज बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने विरोध की हर घटना को भाजपा और नरेन्द्र मोदी से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
सोमवार, 31 मार्च, 2014 को नीतीश कुमार ने चार सभाएं की जिसमें उनके गृह जिला नालन्दा के अस्थावां, उनके पुराने संसदीय क्षेत्र के खुसरूपुर तथा शेखपुरा में कुर्सियां चली, पत्थर फेंके गए तथा लाठी चार्ज करना पड़ा। पीएम-पद का सपना देखने वाले व्यक्ति का अपने घर में अपनों के विरोध का सामना करना जनता में बढ़ते असंतोष का साफ संकेत है। विरोध के लिए पत्थरबाजी करना, हंगामा करना और चेहरे पर स्याही फेंकने जैसे तरीके अपनाना लोकतंत्र में सर्वथा निंदनीय है। इसे कोई उचित नहीं ठहरा सकता। लोगों को अपना विरोध लोकसभा चुनाव में सरकार के विरूद्ध मतदान के ज़रिये प्रकट करना चाहिए। इसके आसार भी हैं।
यह सच है कि भाजपा से गठबंधन तोड़ने के बाद नीतीश सरकार में कामकाज ठप पड़ गया है। मुख्यमंत्री जोड़तोड़ में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें जनता से किए गए वादे याद नहीं हैं। जनादेश के साथ विश्वासघात हुआ। शासन पर सरकार की पकड़ ढ़ीली पड़ गई है। असंतोष स्वाभाविक है। नीतीश सरकार के कामकाज से संतुष्टि का ग्राफ लगातार गिर रहा है। बिहार के मतदाताओं का मूड जानने के लिए CNN-IBN-LOKNITI-CSDS के ताजा सर्वे में इसका खुलासा हुआ है।
सर्वे के मुताबिक पिछले तीन महीनों में सरकार से जनता की संतुष्टि का स्तर 52 प्रतिशत से घटकर 32 प्रतिशत रह गया है। यानी, असंतोष में 20 प्रतिशत का इजाफा हुआ। इसी सर्वे के अनुसार प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी को पसंद करने वाले मतदाताओं की संख्या बिहार में पिछले महीने (मार्च, 2014) जहां 42 प्रतिशत पाई गई, वहीं नीतीश कुमार को पसंद करने वालों की संख्या 14 फीसदी से घटकर मात्र 9 फीसद रह गई।
मुख्यमंत्री को सच का सामना करना चाहिए।
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