Tuesday 29 April 2014

जनता के भरोसे का इम्तिहान ले रहे नीतीश कुमार

(सिद्धांत नहीं, सुविधा के लिए तोड़ा गठबंधन)

अगर कोई शख्स दो खण्डों में कुल 30 साल किसी के साथ चले और फिर अपनी अवसरवादी महत्वाकांक्षा के चलते रिश्ता तोड़ दे, तो उस पर लोग कितना यकीन करेंगे? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा से नाता तोड़ने को 'सिद्धांत की राजनीति' बताकर जनता के यकीन का इम्तिहान ले रहे हैं। अहंकार और सुविधा की राजनीति को सिद्धांत का चोला पहनाया जा रहा है।

1967 में बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार में कपूर्री ठाकुर और रामानन्द तिवारी थे। कम्यूनिस्ट भी थे। 1974 के जे.पी. आन्दोलन और उसके बाद 1977 में केन्द्र तथा बिहार में जनता पार्टी की सरकारें बनीं। उस दौर में नीतीश  कुमार जनसंघ के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। तब जनसंघ उनके लिए साम्प्रदायिक नहीं था। अचानक 13 साल बाद 1980 में जनसंघ 'साम्प्रदायिक' हो गया। दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी टूट गई। सत्ता में कांग्रेस की वापसी का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया। 

नीतीश कुमार 1967 से 1980 तक अपनी राजनीति के प्रारंभिक वर्षों में संघ-जनसंघ की विचारधारा के लोगों के साथ मिलकर काम करते रहे। तब सांप्रदायिकता कोई मुद्दा नहीं था। नीतीश कुमार 16 साल तक भाजपा से दूर रहे परन्तु 1996 में यही पार्टी उन्हें फिर धर्मनिरपेक्ष लगने लगी। वे 2013 तक पूरे 17 साल भाजपा के साथ रहे। भाजपा की वजह से रेल मंत्री बने और फिर मुख्यमंत्री भी बने। उस समय भाजपा 'साम्प्रदायिक' नहीं थी।

मुख्यमंत्री के रूप में वे विकास और सुशासान का सारा श्रेय खुद लेने लग गए। पीएम बनने की महत्वाकांक्षा हावी होने लगी, तो भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे। गठबंधन तोड़कर उन्होंने फिर बिहार को 2005 जैसे हालात में ला दिया है। नीतीश कुमार 17 साल बाद भाजपा की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठा रहे हैं। बिहार के जागरूक मतदाता कांग्रेस और राजद की मदद करने वाली इस साजिश को समझ चुके हैं।

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