Wednesday 30 April 2014

गठबंधन तोड़ने के गुनहगार नीतीश मांग रहे 'मजदूरी'

उस मजदूर को क्या कहेंगे, जो दोस्त के साथ मिलकर मजदूरी-किसानी करे, लेकिन पूरे काम की दिहाड़ी अकेले ही मांगने लगे? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुछ इसी तरह जनता से अपने काम के बदले वोट मांग रहे हैं। बिहार के मतदाताओं ने 2005 में भाजपा-जदयू गठबंधन (एन.डी.ए.) को 15 साल का जंगल राज खत्म कर विकास करने के लिए सत्ता सौंपी थी। जनादेश के अनुसार दोनों दलों ने मिलकर काम किया। पांच साल में हर तरफ बदलाव नजर आने लगा।

2010 के विधान सभा चुनाव में जब दोनों दलों के गठबंधन ने अपने काम की मजदूरी मांगी, तो जनता ने तीन चौथाई बहुमत दिया। उम्मीद से ज्यादा मजदूरी मिली। एन.डी.ए-2 ने और उत्साह से काम को आगे भी बढ़याा, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की निजी महत्वाकांक्षा अचानक बिहार के हितों से ज्यादा बड़ी हो गई। उन्होंने मिलकर काम करने के जनादेश का अपमान किया। गठबंधन तोड़ दिया गया। धर्मनिरपेक्षता को भाजपा से अलग होने का बहाना बनाया गया। विकास रूक गया।

लोकसभा का चुनाव केंद्र की भ्रष्ट और नकारा यूपीए सरकार से जनता को मुक्ति दिलाने के लिए है। यह युवाओं को रोजगार और देश को मजबूत नेतृत्व देने का अवसर है, लेकिन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद इसे मुख्य मकसद से भटकाने में लगे हैं। लोकसभा चुनाव में राज्य सरकार के काम पर वोट मांगना और सांप्रदायिकता के मुद्दे को तूल देना कांग्रेस की मदद करने की साजिश है। मुख्यमंत्री को गठबंधन तोड़ने और राष्ट्रीय मुद्दों से ध्यान बंटाने की सजा मिलनी चाहिए या आधे काम की मजदूरी? मतदाता ही इसका सही जवाब देंगे।

Tuesday 29 April 2014

जनता के भरोसे का इम्तिहान ले रहे नीतीश कुमार

(सिद्धांत नहीं, सुविधा के लिए तोड़ा गठबंधन)

अगर कोई शख्स दो खण्डों में कुल 30 साल किसी के साथ चले और फिर अपनी अवसरवादी महत्वाकांक्षा के चलते रिश्ता तोड़ दे, तो उस पर लोग कितना यकीन करेंगे? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भाजपा से नाता तोड़ने को 'सिद्धांत की राजनीति' बताकर जनता के यकीन का इम्तिहान ले रहे हैं। अहंकार और सुविधा की राजनीति को सिद्धांत का चोला पहनाया जा रहा है।

1967 में बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार में कपूर्री ठाकुर और रामानन्द तिवारी थे। कम्यूनिस्ट भी थे। 1974 के जे.पी. आन्दोलन और उसके बाद 1977 में केन्द्र तथा बिहार में जनता पार्टी की सरकारें बनीं। उस दौर में नीतीश  कुमार जनसंघ के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। तब जनसंघ उनके लिए साम्प्रदायिक नहीं था। अचानक 13 साल बाद 1980 में जनसंघ 'साम्प्रदायिक' हो गया। दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी टूट गई। सत्ता में कांग्रेस की वापसी का मार्ग प्रशस्त कर दिया गया। 

नीतीश कुमार 1967 से 1980 तक अपनी राजनीति के प्रारंभिक वर्षों में संघ-जनसंघ की विचारधारा के लोगों के साथ मिलकर काम करते रहे। तब सांप्रदायिकता कोई मुद्दा नहीं था। नीतीश कुमार 16 साल तक भाजपा से दूर रहे परन्तु 1996 में यही पार्टी उन्हें फिर धर्मनिरपेक्ष लगने लगी। वे 2013 तक पूरे 17 साल भाजपा के साथ रहे। भाजपा की वजह से रेल मंत्री बने और फिर मुख्यमंत्री भी बने। उस समय भाजपा 'साम्प्रदायिक' नहीं थी।

मुख्यमंत्री के रूप में वे विकास और सुशासान का सारा श्रेय खुद लेने लग गए। पीएम बनने की महत्वाकांक्षा हावी होने लगी, तो भाजपा को सांप्रदायिक बताने लगे। गठबंधन तोड़कर उन्होंने फिर बिहार को 2005 जैसे हालात में ला दिया है। नीतीश कुमार 17 साल बाद भाजपा की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठा रहे हैं। बिहार के जागरूक मतदाता कांग्रेस और राजद की मदद करने वाली इस साजिश को समझ चुके हैं।

Monday 28 April 2014

झूठे वादे से मासूम बिहारियों का दिल न दुखाइये


झूठे वादे से मासूम बिहारियों का दिल न दुखाइये

बिहार को रेल जैसा दौड़ायेंगे, दे रहे ये ऐसी पुकार,
10 साल जब राज किया, तो देखा सबने बिहार में चमत्‍कार,
केवल किया इन्‍होंने तिजोरियों को आर पार,
फिर 8 साल लगाए इन्‍होंने कोर्ट के चक्‍कर चार,
और हाल तक जेल में खा रहे थे मक्खियों से मार,

अब कह रहे, मौका दो तो फिर करेंगे बिहार का श्रृंगार I


नरेन्‍द्र मोदी आ गए तो बदल देंगे अपना नाम,
पर हम बिहारियों की क्‍या गलती, 

क्‍यों पूरे देश में किया बिहारियों को आपने बदनाम,

सारे बिहारी कर रहे दिल और दिमाग से हर जगह काम,
फिर बेइज्‍जत होंगे हम सब, अगर इनके जैसों ने संभाली कमान I

मजाक करना पसंद है, तो अपना मजाक बनाते रहिए,

आंख बंद कर सपने देखना पसंद है, तो खुद को सपने दिखाइए,

परिवारवाद में भरोसा है, तो उन्‍हें भी आगे बढ़ाइये,

पर बिहार को चमकाने का वादा, ऐसे झूठ से, 

मासूम बिहारियों का दिल न दुखाइये I

Sunday 27 April 2014

लालटेन में तेल खत्‍म

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लालटेन में तेल खत्‍म


खत्म हो रहा लालटेन में तेल,
तभी हो रहा जद(यू) से काफी सीटों पर मेल,
जद(यू) की तरह आप चला रहे बिना पहिये की रेल,
उन्हीं की तरह देखना आप भी होंगे फेल।
बहुत खाया इन्होंने बिहार का चारा,
भूल गए जनता ने इन्हें कितनी बार नकारा,
अब तो आप बन सकते हैं केवल कांग्रेस की ही आँखों का तारा,
गली गली में शोर है..., भूली नही जनता ये नारा।
इस चुनाव में जनता को कैसे बेवकूफ बनाओगे?
वोट पाने के लिए कौनसा नया करतब दिखलाओगे?
कांग्रेस को पकड़े रखना, फिर भी मात खाओगे,
लाख कोशिश कर लो, मोदी की हवा में बह जाओगे।

Saturday 26 April 2014

नीतीश राज में बदहाल हुई कानून-व्यवस्था


(सुप्रीम कोर्ट ने की टिप्पणी, महिलाएं और असुरक्षित)

सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार, 25 अप्रैल को टिप्पणी की कि बिहार में कानून-व्यवस्था दयनीय स्तर पर है। न्यायालय ने राज्य सरकार के पुलिए महानिदेशक से पूछा है कि बलात्कार का आरोपी खुला कैसे घूम रहा है? अदालत की इस टिप्पणी और कानून-व्यवस्था की बदहाली के लिए सीधे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिम्मेवार हैं। उन्हाेंने भाजपा से नाता तोड़कर बिहार को फिर से अराजकता के दौर में पहुंचा दिया है।

जब तक भाजपा बिहार सरकार में शामिल थी, तब-तक सुशासन सरकार की यूएसपी (खासियत) थी। प्रदेश में भयमुक्त वातावरण बना रहा। निवेशक उद्योग-व्यापार में रूचि लेने लगे थे, लेकिन नीतीश कुमार ने अहंकार के चलते गठबंधन तोड़ा और हालात लगातार बिगड़ते चले गए। उग्रवादी हिंसा और आतंकी धमाके तो बढ़े ही, हत्या-बलात्कार की घटनाएं भी बढ़ने लगीं।

बिहार पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि 2007 में 2963 हत्याएं हुईं, जबकि भाजपा के सरकार से हटने के बाद 2013 में 3441 लोग हत्या के शिकार हुए। शासन की कमजोरी के चलते जो 478 अधिक बिहारी अपने ही राज्य में मारे गए, उसके लिए जिम्मेवार कौन है? मुख्यमंत्री बताएं कि हत्या के आंकड़े घटने की बजाए 478 बढ़ क्यों गये? राज्य को महिलाओं के लिए अधिक भयावह क्यों बना दिया गया? 2010 में बलात्कार की घटनाएं 795 दर्ज की गईं, लेकिन 2013 में बलात्कार की घटनाएं 1128 तक पहुंच गईं। पहले की अपेक्षा 333 अधिक महिलाएं बलात्कार का शिकार बनीं। सुप्रीम कोर्ट की ताजा टिप्पणी बलात्कार की घटना के संदर्भ में हैं।

अपराध की ये घटनाएं नीतीश कुमार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते टूटे गठबंधन और कमजोर सरकार के कारण बढ़ी है। भाजपा बिहार को कुशासन के पुराने दौर में लौटने नहीं देगी। पार्टी का संघर्ष नीतीश कुमार और लालू प्रसाद दोनों से है।

Friday 25 April 2014

लालू प्रसाद अब तक क्यों नहीं लगवा सके आर.एस.एस. पर प्रतिबंध?

(सुप्रीम कोर्ट से मिली जमानत का कर रहे हैं दुरूपयोग)

चारा घोटाले में सजायाफता लालू प्रसाद यूपीए-1 में मंत्री रहे और कांग्रेस में मिले तिरस्कार के बावजूद यूपीए-2 का समर्थन करते रहे। केंन्द्र की सत्ता के साथ रहते हुए विगत दस साल में भी वे आर.एस.एस. (राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ) पर रोक क्यों नहीं लगवा सके? अब चुनाव के समय वे एक देशभक्‍त संगठन को बदनाम कर रहे हैं। कांग्रेस के कुशासान और भ्रष्टाचार के प्रति गुस्से से ध्यान बंटाकर मतदाताओं के एक वर्ग को वोट-बैंक में बदलने के लिए भाजपा और संघ का डर पैदा किया जा रहा है।

लालू प्रसाद बार-बार कह रहे हैं कि यूपीए सत्ता में आया तो आर.एस.एस. पर प्रतिबंध लगाया जाएगा और गुजरात दंगे की जांच फिर से कराई जाएगी। सवाल यह है कि यूपीए सरकार 10 साल में ऐसा क्यों नहीं कर सकी? लालू प्रसाद चारा घोटाला में दोषी पाये जाने के चलते मुखिया और पार्षद तक का चुनाव लड़ने के लायक नहीं हैं लेकिन ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते संघ पर रोक लगाने की बात कर रहे हैं। 

आजाद भारत में सबसे ज्यादा दंगे कांग्रेस शासन में हुए। भागलपुर का दंगा भी कांग्रेस शासन में हुआ। यूपीए के इस दाग को छिपाने के लिए सिर्फ गुजरात के दंगे की दुराग्रहपूर्ण चर्चा की जाती है। गुजरात दंगों के मामले में न्यायालय के क्लीन चिट के बावजूद चारा घोटले में सजायाफ्ता और जमानत पर छूटे लालू प्रसाद गुजरात दंगे संबंधी न्यायिक फैसले पर सवाल उठाकर अदालत का अपमान कर रहे हैं। समाज के जख्म हरे रखना और राजनीतिक फायदे के लिए न्यायालय के फैलसे पर सवाल उठाना क्या अदालत का अपमान नहीं है? अगर अपराधी चुनाव नहीं लड़ सकता, तो क्या जमानत की अवधि में उसे चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने की इजाजत मिलनी चाहिए? क्या इस पर चुनाव आयोग को संज्ञान नहीं लेना चाहिए? इन बडे़ सवालों का जवाब जनता अपने भारी मतदान से ही दे सकती है।

Thursday 24 April 2014

आने वाली पीढि़यां नीतीश कुमार से भी पूछेंगी सवाल

देश में कभी नेहरू को, तो कभी इंदिरा गांधी को 'भारत' बताने की कोशिश की गई, अब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद को ही बिहार बताने का भावुक प्रयास कर रहे हैं। वे कहना चाहते हैं कि जो लोग उनकी पार्टी को वोट नहीं देंगे, वे सब बिहार-विरोधी हैंं। उनका दावा है कि बिहार का विकास सिर्फ उन्हीं की बदौलत हुआ है, इसलिए जो व्यक्ति जदयू को वोट नहीं देगा, वह इस मिट्टी का कर्जदार हो जाएगा।

सच्चाई जनता जानती है। नीतीश कुमार को भाजपा ने मुख्यमंत्री बनवाया। जदयू के साथ साझा सरकार में रहते हुए भाजपा के मंत्रियों ने प्रदेश को बीमारू राज्य के गड्ढे से निकालने में बढ़-चढ़ कर काम किया। पार्टी के ठोस समर्थन और भाजपा मंत्रियों वाले विभागों में बेहतर प्रदर्शन की बदौलत बिहार सबसे तेज विकास दर हासिल कर पाया।

अगर सब कुछ अकेले मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी की वजह से ही हुआ, तो भाजपा के सरकार से हटते ही विकास ठप्प क्यों पड़ गया? हत्या-बलात्कार जैसे अपराध के 2013 के आंकडे 2005 के आंकड़ाें को पार क्यों कर गए? जदयू शासन के नौ माह में ही सुशासन तार-तार क्यों हो गया? बोधगया से पटना तक सीरियल धमाके क्यों होने लगे? 

आने वली पीढियां यह भी पूछेंगी कि निजी महात्वकांक्षा के लिए 10.38 करोड लोगों के इस प्रदेश को राजनीतिक- प्रशासनिक रूप से पंगु क्यों बना दिया गया? जिस व्यक्ति को एनडीए के नेता की हैसियत से चुना गया था, वह नया जनादेश लिए बिना तीसरा-चौथा मोर्चा क्यों बनाने लग गया? अचानक कार्यकाल के बीच में गठबंधन तोड़कर पीएम बनने के सपने क्यों देखे जाने लगे? क्यों उसी लालू प्रसाद के मनोबल बढ़नो की जमीन तैयार की गई, जिनके 15 साल के राजकाज में बिहार को बुरे दिन देखने पड़े थे?

आने वाली पीढि़यां नीतीश कुमार से भी सवाल पूछेंगी। जमाना सिर्फ वही सवाल नहीं पूछता जो आप चाहते हैं। मुख्यमंत्री सवालों से परे नहीं होता।

Wednesday 23 April 2014

कांग्रेस के मददगार चाहते हैं कमजोर मोर्चा सरकार


लोकसभा चुनाव में पांच चरणों के मतदान के बाद कांग्रेस अपनी हार को तय मानकर लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं के भरोसे यूपीए-3 की आस लगा रही है। कुछ लोग तीसरे-चौथे मोर्चे की सरकार बनने की बात कर कांग्रेस की मदद करने के लिए अंधेरे में तीर चला रहे हैं। दूसरी तरफ भाजपा पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकार के लिए विशाल जन समर्थन जुटा रही है।

पिछली सदी में 1990 के दशक में लोग देख चुके हैं कि जोड़-तोड़ और कांग्रेस की कृपा से बनी सरकारों से देश को कितना नुकसान उठाना पड़ा। चंद्रशेखर, एच.डी. देवगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल के रूप में कमजोर प्रधानमंत्री मिले। कांग्रेस ने इन्हें प्रधानमंत्री बनवा कर पिछले दरवाजे से शासन किया और अपनी सुविधानुसार समर्थन वापस लेकर सरकारें गिरायीं या देश पर चुनाव थोप दिया। मोर्चा सरकारें देश पर बोझ साबित हुई। राजनीतिक अस्थि‍रता के चलते अर्थव्यवस्था चौपट हुई और विकास के पहिए थम गए। दे’k को सोना गिरवी रखना पड़ा था। क्या मोर्चा सरकार की बात करने वाले लोग फिर वही हालात पैदा करना चाहते हैं।

जनता नरेन्द्र मोदी को मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में देख रही है, क्योंकि नब्बे के दौर वाली गलती कोई 21वीं सदी के इस दौर में दोहराना नहीं चाहता। तरक्की और रोजगार के लिए केन्द्र में स्थायी सरकार जरूरी है। मतदान के अगले चरणों में भी लोग इसी मुद्दे को ध्यान में रखकर वोट डालेंगे और भाजपा 300 सीटें जीतने का लक्ष्य प्राप्त करेगी। हमने 1977 में देखा था कि जब जनता ठान लेती है, तब असंभव कुछ भी नहीं होता। बदलाव होकर रहता है।

Tuesday 22 April 2014

हवा में तीर और क्रेडिट लेने का चक्कर


images (3)हवा में तीर और क्रेडिट लेने का चक्कर

कुछ लोगों ने 15 साल दिखाया अँधेरा,
तो कुछ लोगों ने सिर्फ दिखाया झूठा सवेरा,
बस एक मौका दो हमें, विकसित होगा देश हमारा ।

कुछ लोगों ने बिहार को बनाया मज़ाक,
काम के नाम पर करते केवल तिजोरियों में ताक झांक,
घोटालों में जलाकर इन्होंने किया बिहार को राख।

दूसरे कहते - हमने ये किया, हमने वो किया,
सही ही कहते - काम किसी ने भी किया हो, क्रेडिट तो आपने ही लिया,
और इसी चक्कर में उन्होंने डुबोई, बिहार की लुटिया।

तो दोस्तों, क्या आपको फिर लालटेन की रोशनी में रहना है?
क्या आपको केवल हवा में छोड़े तीर के साथ बहना है?
क्या इन लोगों को चुन हम बिहारियों को फिर इन्हें सहना है?

तो मित्रों, सही से करना अपने वोट का इस्तेमाल,
करेंगे झूठे सपने दिखाने वालों को बेहाल,
आशा करता हूँ 16 मई को बिहार और भारत मनाएगा नया साल।

Monday 21 April 2014

शीशे के घरों से जारी नमो पर पत्थरबाजी

भाजपा और इसके पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की बढ़ती लोकपियता से बेचैन नेताओं में अनर्गल आरोप लगाने की होड़ लगी है। खुद अपना चेहरा आईने में देखे बिना वे नरेंद्र मोदी को तानाशाह, हिटलर, मुसोलिनी या ईदी अमीन जैसा बता रहे हैं।

देश जानता है कि आपातकाल लागू करने वाली इंदिरा गांधी कितनी बड़ी तानाशाह बन गई थीं और किस तरह सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लाचार बना रखा है। जनता दल-यू में न कोई संसदीय बोर्ड है, न चुनाव समिति। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आगे पार्टी में किसी की नहीं चलती। जयदू सरकार के मंत्री नेरेन्द्र सिंह भी कह चुके हैं कि पार्टी में राह चलते लोगों को टिकट दे दिया जाता है। जदयू को यह तानाशाही नहीं दिखती।

राजद में लालू प्रसाद पत्नी को मुख्यमंत्री बनवायें, विधान परिषद का सदस्य बनवायें या कर्मठ नेता का टिकट काट कर बेटी को उम्मीदवार बनवा दें, विरोध में कोई बोलने वाला नहीं होता। राजद को तानाशाही का यह परिवारवादी चेहरा नहीं दिखाई देता।

अपनी तानाशाही छिपाते इन दलों के विपरीत भाजपा एक लोकतांत्रिक पार्टी है, जिसमें विभिन्न स्तरों पर चर्चा के बाद फैसले लिए जाते हैं। यह एक व्यक्ति की पार्टी नहीं है, इसलिए इसका संसदीय बोर्ड है। चुनाव समिति है। सामूहिक निर्णय से पार्टी भी चल रही है और इसकी देख-रेख में गुजरात-मध्यप्रदेश समेत विभिन्न राज्यों की सरकारें भी अच्छा काम कर रही हैं। तानाशाही का आरोप लगाने वाले खुद शीशे के घरों में रह कर भाजपा पर पत्थबाजी कर रहे हैं। भाजपा का संगठन ऐसा है कि इसमें प्रधानमंत्री बनकर किसी का तानाशाह बनना तो दूर, पार्टी के भीतर भी कोई ऐसा नहीं कर सकता।

Sunday 20 April 2014

राबर्ट वाड्रा के भ्रष्ट बिजनेस मॉडल पर चुप क्यों हैं नीतीश-लालू

भ्रष्टाचार और महंगाई से जनता परेशान है, जबकि भ्रष्टाचार की गंगोत्री कांग्रेस से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोस्ताना निभा रहे हैं। दोनों ही यूपीए की वापसी चाहते हैं, इसलिए इस मुद्दे पर वे चुप हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा ने 90 हजार रूपये से 324 करोड़ रूपये कैसे बना लिए? अमेरिकी अखबार 'वाल स्ट्रीट जर्नल' ने दावा किया है कि सत्ता के दुरूपयोग की बदौलत वाड्रा को पांच साल में करोड़ाें रूपये कमाने का मौका मिला। इसमें हरियाणा की कांग्रेस सरकार का भी रोल था।

गुजरात मॉडल के खिलाफ आंकड़े जुटाने में लगे नीती’ा कुमार ने वाड्रा के भ्रष्ट बिजनेस मॉडल और वाड्रा 'वाल स्ट्रीट जर्नल' के खुलासे पर कुछ कहना जरूरी नहीं समझा। वे यूपीए सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम से शिष्टाचार निभाने के लिए पटना में उन्हें कांग्रेस दफ्तर तक छोड़ने गए, लेकिन भाजपा की मदद से सरकार चलाते हुए भी भाजपा के नेताओं से अशिष्ट व्यवहार करते रहे। अति सम्माननीय लाल कृष्ण आडवाणी समेत शीर्ष भाजपा नेताओं को मुख्यमंत्री आवास में दिया गया भोज रद्द करना नीतीश कुमार का कौन सा शिष्टाचार था? उस अहंकारपूर्ण व्यवहार को जनता भूली नहीं है।

लाखों करोड़ रूपये के 2जी घोटाले से लेकर वाड्रा के सत्तापोषित बिजनेस मॉडल तक की गुनहगार कांग्रेस के नेताओं से शिष्टाचार और बिहार को जंगलराज से मुक्ति दिलाने में मददगार भाजपा से दुव्र्यवहार करना नीतीश कुमार का राजनीतिक अपराध है। लोकसभा चुनाव में भारी मतदान कर जनता इसपर फैसला सुनाएगी।

Saturday 19 April 2014

अख्तरूल के ईमान और बयान पर संज्ञान ले चुनाव आयोग

(ध्रुवीकरण की अपील आचार संहिता का उल्लंघन)

किशनगंज संसदीय क्षेत्र से जदयू उम्मीदवार अख्तरूल ईमान का कांग्रेस के पक्ष में मैदान छोड़ना और सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण की अपील करना चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है। इस पर चुनाव आयोग को संज्ञान लेना चाहिए। अख्तरूल का ईमान बदलना कांग्रेस, राजद और जदयू के बीच गुप्त समझौते का हिस्सा है। यह भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए के खिलाफ धार्मिक भावनाए¡ भड़काने का मामला है। चुनाव से हटने की घोषणा करते समय अख्तरूल ने कहा था ''मैं नहीं चाहता कि मुसलमानों के वोट बटने और भाजपा के एक और एमपी की जीत के लिए मुझपर कोई आरोप लगाए''। उन्होंने अन्य चुनाव क्षेत्रों के मुस्लिम उम्मीदवारों से भी ऐसा करने की अपील की थी। चुनाव आयोग को उनकी अपील और बयानों का अध्ययन कर कड़ी कार्यवाई करनी चाहिए। 

अख्तरूल के जरिए जदयू सीमांचल के कुछ क्षेत्रों में भाजपा के विरूद्ध वोट-ट्रान्सफर कराने की साजिश कर रहा है। यदि अख्तरूल ने पार्टी की नीयत के खिलाफ काम किया है, तो उन्हें अब तक निष्कासित क्यों नहीं किया गया? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस पर चुप क्यों हैं? उन्होंने कहा है कि नरेन्द्र मोदी को सत्ता से दूर रखने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। क्या जदयू किशनगंज और आसपास के क्षेत्रों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर उतर कर अपने गिरते सियासी ईमान की हद बताना चाहता है?

दूसरी तरफ भाजपा के पीएम-प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि हिन्दु-मुस्लिम आधार पर वोट मांगने के बजाय वे चुनाव हारने को तैयार हैं। उन्हें धर्म निरपेक्षता के नाम पर हिन्दु-मुस्लिम भाईयों का बटवारा मंजूर नहीं है। उन्होंने विकास और मजबूत सरकार के लिए किसी धार्मिक समुदाय से नहीं, बल्कि देश के सवा अरख लोगों से समर्थन मांगा है। लोकसभा चुनाव के अगले चरण में लोग नीतीश-लालू के धुवीकरण-मॉडल को खारिज करेंगे और 125 करोड़ लोगों की बात करने वाले मोदी मॉडल का साथ देंगे।

Friday 18 April 2014

बदलाव के तूफान का इशारा है भारी मतदान

(नरेन्द्र मोदी में दिखी आशा की किरण)

बिहार सहित देशभर में भारी मतदान बदलाव के तूफान का इशारा है। यह कोई साधारण घटना नहीं है। बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में 17 फीसद ज्यादा वोट पड़े हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिला नालन्दा में तो 22 फीसद तक अधिक मतदान हुआ है। किसी सरकार को बनाए रखने के लिए ऐसा नहीं हो सकता। साफ है कि यूपीए सरकार की नाकामियों से निराश लोगों ने केन्द्र में मजबूत और स्वच्छ सरकार के लिए उत्साह के साथ वोट डाले हैं। जनता में यह आत्मविश्वास बढ़ा है कि उनका वोट मुसीबतें बढ़नो वाली सरकार को सत्ता से बाहर कर सकता है।

लोकतंत्र की इस ताकत में भरोसा पैदा करने के लिए भाजपा और इसके नेता नरेन्द्र मोदी ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। छह माह में नरेन्द्र मोदी ने 380 से ज्यादा रैलियां कीं। इनमें जो भीड़ उमड़ी, उसने रिकार्ड तोड़ दिए। हर सभा में औसतन दो लाख लोगों का आना असाधारण घटना है। जवाहर लाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी की चुनावी सभाओं में भी इतने लोग नहीं आते थे। दक्षिण भारत की कुछ सभाओं में तो लोग टिकट लेकर नमो का भाषण सुनने आये। माहौल 1977 जैसा हो गया है। 

भाजपा ने पीएम-प्रत्याशी का नाम घोषित कर कमजोर नेतृत्व और खराब अर्थव्यवस्था से मुक्ति का स्पष्ट विकल्प देश के सामने रखा। इसका भी असर पड़ा है। मतदाताओं ने आत्मविश्वास से भरे नरेन्द्र मोदी में आशा की किरण देखी। भारी मतदान युवा और महिला वोटरों के गुस्से का इजहार भी है। युवा जहां बेरोजगारी से परेशान हैं, वहीं महिलाएं घर में महंगाई की मार और बाहर बढ़ती असुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। जाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में लोग किसी अक्षम सरकार को बनाये रखने के लिए नहीं, बल्कि बेहतर सरकार को स्पष्ट बहुमत देने के लिए पोलिंग बूथ तक आए थे। मतदान के अगले चरण में भी यही सत्ताविरोधी तेवर दिखेगा। भारत इसी से बदलेगा।

Thursday 17 April 2014

उल्लू बनाने वाली कांग्रेस को बिहार ने दिया चुल्लू भर पानी (2009 में मिली थी सिर्फ दो सीटें)

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने बुधवार को टॉफी-गुब्बारे जैसे बचकाने प्रतीक से परहेज किया तो उल्लू बनाने जैसे हल्के मुहावरे पर उतर आये। किशनगंज (बिहार) की सभा में राहुल उल्लू बनाने वालों से लोगों को सावधान कर रहे थे, जबकि यहां की जनता प्रदेश की सत्ता से कांग्रेस को बाहर रखकर लगातार बता रही है कि देश को 50 साल से कौन उल्लू बना रहा है। अपना राजनीतिक राडार सक्रिय रखने वाले बिहार ने पिछले लोकसभा चुनाव में उल्लू बनाने वालों को चुल्लू भर पानी यानि 40 में से 2 सीट दिया था। उनका साथ देने वाले राजद को सिर्फ 4 सीटें मिली थीं।

राहुल गांधी ने पर्दे के पीछे से केन्द्र की सरकार चलाई, पर्दे के बाहर हीरो बनने के लिए विधेयक की प्रति फाड़ी, प्रधानमंत्री पद की गरिमा को मिट्टी में मिलाया, दुनियां में देश की छवि खराब की और अपनी पार्टी में परिवार के बाहर से कोई नेतृत्व नहीं उभरने दिया। मुट्ठी में इतनी ताकत रखने के बावजूद उन्होंने जनता को निराश किया। वे नहीं बता सके कि यूपीए सरकार ने 10 साल में बिहार के लिए क्या किया? खुद सत्ता में रहे और किशनगंज में विपक्षी नेता की तरह बोले। देश दिल्ली से चलता है और राहुल हमले गुजरात पर कर रहे हैं।

कांग्रेस के अघोषित पीएम प्रत्याशी राहुल गांधी से बिहार जानना चाहता है कि महंगाई जंगल की आग क्यों बन गई? नौजवानों के सपने बेरोजगारी में क्यों झुलस रहे हैं? और सेवा की छांव देने वाली सत्ता बड़े-बड़े घोटालों की छतरी कैसे बन गई? इन सवालों से बचने के लिए वे नरेन्द्र मोदी पर हमले कर रहे हैं। राहुल उस सरकार की वापसी के लिए वोट मांग रहे हैं जिसके प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री और सूचना मंत्री चुनाव में खड़े होने का साहस नहीं कर पाये। कांग्रेस के वादे पर किसी को भरोसा नहीं रहा लेकिन लालू प्रसाद अब भी डूबती नाव पर सवार हैं।

Wednesday 16 April 2014

कांग्रेस की फटी कमीज के रफूगर बने हैं लालू-नीतीश


लोक सभा चुनाव में ऐसा पहली बार हो रहा है कि कुछ लोग देश पर समस्याओं का पहाड़ थोपने वाली यूपीए सरकार को सबक सिखाने की जगह मुख्य विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ गोलबंदी कर रहे हैं। फिर से एक कमजोर और भ्रष्ट सरकार थोपने की साजिश चल रही है। मतदान से दो दिन पहले किशनगंज में जद-यू प्रत्याशी का कांग्रेस के पक्ष में हटना इसी साजिश का हिस्सा है।

बिहार गैर कांग्रेसवाद का हिमायती रहा है, लेकिन उसी राजनीति से निकले लालू प्रसाद और नीतीश कुमार कांग्रेस की फटी कमीज के रफूगर बन गए हैं। कोई खुलकर राहुल गांधी को पीएम बनाने की बात कह रहा है, तो किसी का उम्मीदवार ऐन वक्त पर पीछे हट जाता है। परिवारवाद और निजी महत्वाकांक्षा के नशे में जनता के असली मुद्दों से ध्यान हटाने की मुहिम चलायी जा रही है।

लोग बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, खस्ताहाल अर्थ व्यवस्था, सीमा पर बढती चुनौती और भ्रष्टाचार से परेशान हैं, जबकि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार केवल एक व्यक्ति के खिलाफ जहर उगलने में लगे हैं। इसके बावजूद देश में बदलाव की हवा तूफान बनने लगी है। नरेन्द्र मोदी परिवर्तन की प्रबल इच्छा के प्रतीक बन चुके हैं। जनता अपने भारी मतदान से बदलाव का इतिहास लिखने वाली है।

Tuesday 15 April 2014

देश पर कमजोर प्रधानमंत्री थोपना चाहते हैं लालू-नीतीश

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद अौर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार देश पर कमजोर प्रधानमंत्री थोपना चाहते हैं। ये दोनों एक दूसरे के खिलाफ दिखते हैं, लेकिन काम एक ही मकसद के लिए कर रहे हैं। दूसरी तरफ भाजापा नरेंद्र मोदी के रूप में देश को मजबूत प्रधानमंत्री देने के लिए लोकसभा के चुनाव में पूरी जिम्मेदारी के साथ जनता से समर्थन मांग रही है।

पिछले दो दिनों में जो चर्चित किताबें सामने आईं, उनसे पता चलता है कि किस तरह प्रधानमंत्री पद को लगातार लाचार बनाया गया अौर इसके चलते देश को क्या परिणाम भुगतने पड़े। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने मंत्रियों के दबाव में इतने मजबूर हो गये कि उन्हें कोल ब्लॉक की निलामी करने की जगह उसका आवंटन करना पड़ा। यूपीए सरकार के मंत्री सर्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में पैसे लेकर नियुक्ति‍यां कराते रहे और सीएमडी जैसे बड़े पदों पर बैठे अफसरों से उगाही करते रहे। पीएम इतने असहाय थे कि मंत्री उनके फैसले बदल देते थे। यदि मजबूत प्रधानमंत्री होते तो इस तरह न तो देश के संसाधनों की लूट होती और न भ्रष्टाचार बढ़ता।

प्रधानमंत्री की पूर्व मिडिया सलाहकार संजय बारू की पुस्तक बताती है कि सरकार के अहम फैसलों पर भी पीएम का जोर नहीं चलता था। फाईलें पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पास जाती थी। यहां तक कि प्रधानमंत्री से बात किए बिना प्रणव मुखर्जी को वित्त मंत्री बना दिया गया।

पूर्व कोयला सचिव की किताब के अनुसार यूपीए-। के दौरान बात सिर्फ कोल ब्लॉक के आवंटन में घोटाले तक सीमित नहीं थी। भ्रष्टाचार के विरूद्ध प्रतिरोध लगभग खत्म हो चुका था। नीतीश कुमार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 'जीरो टालरेंस' की बात करते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार की बाढ़ लाने वाली कांग्रेस के साथ 'फ्रेंडली मैच' खेलते हैं। किशनगंज में कांग्रेस के पक्ष में जदयू प्रत्याशी का हटना इसी सांठ-गांठ का नमूना है। जदयू ने भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस से हाथ मिला लिया। नीतीश कुमार को कांग्रेस में भविष्य का दोस्त नजर आता है, इसलिए वे सिर्फ भाजपा पर अनर्गल हमले करते हैं।

बिहार अौर पूरे देश में जिस तरह नरेंद्र मोदी के पक्ष में लहर है, उससे साफ है कि धर्मनिरपेक्षता के मुखौटे पहनकर कमजोर प्रधानमंत्री बनवाने की लालू-नीतीश की कोशिशें नाकाम रहेंगी।

Monday 14 April 2014

संवेदनहीन मुख्यमंत्री हैं नीतीश कुमार

(मंत्री करते हैं शहीदों का अपमान)

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार की जनता के दुख की घड़ी में गैरहाजिर रहकर बार-बार अपनी संवेदहीनता जाहिर की है। जून 2013 में विषाक्त मिड-डे मील खाने से सारण जिले के मशरख में 23 स्कूली बच्चों की मौत हुई, लेकिन मुख्यमंत्री ने पीडि़त परिवारों से मिलने जाना जरूरी नहीं समझा। जो बीमार बच्चे बेहतर इलाज के लिए पटना लाए गए उन्हें देखने के लिए वे पीएमसीएच तक भी नहीं गए।

जम्मू-कश्‍मीर में पाकिस्तानी सेना से जूझते हुए बिहार के चार जवान शहीद हुए। जब इनका शव पटना आया, तब सम्मान प्रकट करने के लिए बिहार सरकार का कोई मंत्री हवाई अड्डे पर नहीं था। शहीद के परिवार को सांत्वना देने भी नहीं गए नीतीश कुमार। जो शहीद हुए थे, वे भी बिहार के बेटे थे। मुख्यमंत्री की संवेदनहीनता का ही परिणाम था कि उनकी सरकार के एक मंत्री ने शहीदों के प्रति अपमानजनक टिप्पणी की और कहा कि सेना मे तो लोग मरने के लिए ही जाते हैं। नक्सली हमले में शहीद जवानों के प्रति भी मुख्यमंत्री का ऐसा ही संवेदनहीन रवैया होता है। अनुग्रह राशि के लाख-दो-लाख देकर कर्तव्य की इतिश्री मान ली जाती है। 

अक्टूबर 2013 में भाजपा की हुंकार रैली के दौरान हुए सीरियल धमाकों में जो लोग मारे गए, उनके परिजनों को सांत्वना देने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी आए, लेकिन नीतीश कुमार इनमें से किसी भी परिवार से मिलने नहीं गए। क्या मरने वाले लोग बिहारी नहीं थे?

उत्तराखण्ड में भयानक भू-स्खलन के दौरान हजारों लोग मारे गए। बिहार के लोग भी हताहत हुए, लेकिन नीतीश सरकार ने राहत और बचाव के लिए कोई तत्परता नहीं दिखाई। लगभग दो सप्ताह तक कोई सुध नहीं ली गई। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यह कि उत्तराखण्ड त्रासदी में देश के साथ खड़े होने वाले नरेन्द्र मोदी पर टीका-टिप्पणी की गई।

19 अगस्त 2013 को खगडि़या जिले के धमारा में रेल पटरी पार करते समय 37 लोगों की मृत्यु हुई और 100 से ज्यादा लोग जख्मी हुए लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वहां नहीं गए। उनकी संवेदनहीनता जले पर नमक साबित होती है। लोकसभा चुनाव में मतदाता उन्हें नहीं चुनना चाहेंगे, जो विपत्ति‍ में साथ खड़े होना जरूरी नहीं समझते।

भाजपा ही रोक सकती है जंगलराज की वापसी


संघर्ष में लाठियां हमने खाईं, श्रेय लूटना चाहते हैं नीतीश 

भाजपा ने 90 के दशक में लालू प्रसाद के जंगल राज का डटकर विरोध किया और अब भाजपा ही जंगल राज की वापसी को रोक सकती है। जंगल राज और भ्रष्टाचार का विरोध करने के चलते उस समय विधान सभा के भीतर मेरे ऊपर हमला तक हुआ। सदन के बाहर भाजपा कार्यकर्ताओं पर लाठियां चलीं लेकिन अब नीतीश कुमार उस जंगल राज को समाप्त करने का श्रेय लूटना चाहते हैं। 

हकीकत तो यह है कि बिहार के जंगल राज के दिनों में नीतीश कुमार संघर्ष से हमेशा कतराते रहे। भाजपा ने जब चारा घोटाला के विरूद्ध अदालत का दरवाजा खटखटाया, तब नीतीश कुमार ने तीन दिन इंतजार कराने के बाद भी हलफनामे पर दस्तख्त करने से इनकार कर दिया था। उन्होंने भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई में भागीदारी का पहला मौका खो दिया।

सन 2000 में लालू राज को राजनीतिक चुनौती देने का जब अवसर आया, तब भाजपा के साथ तालमेल और टिकट बंटवारे में नीतीश कुमार का अहंकार आड़े आया। लालू-राबड़ी की सरकार को फिर राहत मिल गई। भाजपा के समर्थन से जब नीतीश कुमार को बिहार में पहली बार सरकार बनाने का मौका मिला, तो वे बहुमत नहीं सिद्ध कर पाए। सात दिन में सरकार गिर गई।

सरकार गिरने के बाद नीतीश कुमार ने राजद के कुशासन से लड़ने के लिए पटना में खूंटा गाड़ कर रहने की बात कही, लेकिन मौका मिलते ही दिल्ली जाकर मंत्री बन गए। भाजपा-गठबंधन की सरकार ही लालू राज से लोगों को राहत दिला पाई, लेकिन नीतीश कुमार ने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के चलते गठबंधन तोड़ा और फिर लालू प्रसाद की हिम्मत बढ़ाने का काम किया। इस चुनाव में तो जदयू वोट-कटवा पार्टी की औकात में आ गया है। नीतीश कुमार ने कभी विपक्ष में रह कर लालू प्रसाद की मदद की, तो कभी गठबंधन सरकार को तोड़ कर उन्हें फायदा पहुंचाया। बिना संघर्ष के पगड़ी में तुर्रा लगाने के शौकीन नीतीश कुमार से लोगों को सावधान रहना चाहिए। भाजपा विपक्ष में रही या शासन में, राजनीति जनता के हित में ही करती रही।

Saturday 12 April 2014

बिहारियों को रोजगार, मान-सम्मान देने वाले गुजरात के प्रति लालू-नीतीश को नफरत क्यों?

बिहार के दस लाख से ज्यादा लोग गुजरात में रोजी-रोटी कमा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के सरकार ने ऐसा माहौल और अवसर दिया है कि लोग अपनी मेहनत का सर्वोत्तम भुगतान पाने के लिए गुजरात को चुनते हैं, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लालू यादव सम्मान-सुरक्षा के साथ आजीविका देने वाले गुजरात के विकास का मजाक उड़तो हैं। गुजरात मॉडल से सीखने की जगह आंकड़ाें की मनमानी व्याख्या कर लोगों को भड़का रहे हैं।

जो लोग खुद लकीर नहीं खींच पाते, वे दूसरों की लकीर मिटाने की कोशिश करते हैं। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद फिलहाल यही कर रहे हैं। लालू प्रसाद ने बिहार की अर्थव्यवस्था को इतना चौपट किया कि लोगों को अपने प्रदेश में रोजगार मिलना मुश्‍िकल हो गया। पिछले नौ महीनों से नीतीश सरकार ठप पड़ी है। अपनी नाकामी छिपाने के लिए लालू -नीतीश गुजरात के विकास पर अंगुली उठाते हैं।

सच तो बिहार के लोग जानते हैं। बिहार की कोई ऐसी पंचायत नहीं, जहां के 10-20 लोग आजीविका के लिए गुजरात न गए हों। गुजरात से लौटकर लोग अपने गांव-देहात में बताते हैं कि गुजरात में कितना विकास हुआ है। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद बताएं कि गुजरात में कभी बिहार के किसी कामगार का अपमान हुआ हो?
दूसरी तरफ कांग्रेस-शासित असम में बिहारी मारे जाते हैं और कांग्रेस से दोस्ती रखने वाले लालू प्रसाद कुछ नहीं कहते। महाराष्‍ट्र में भी बिहारियों का अपमान होता है, लेकिन वहां की कांग्रेस-एन.सी.पी. सरकार के खिलाफ चुप्पी साध ली जाती है। नीतीश कुमार तो मुम्बई में अपनी सभा के लिए राज ठाकरे के सामने घुटने टेक चुके हैं।

गांधी से जेपी तक गुजरात और बिहार का रिश्‍ता पुराना है, लेकिन जेपी को भूलकर राहुल-सोनिया की रट लगाने वाले लालू प्रसाद गुजरात पर जुबानी हमले कर रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री तो गुजरात को घृणा की निगाह से देखते हैं मानो वह हिन्दुस्तान के बाहर है। बिहार के लोग अपनी और गुजरात की साझा तरक्की के लिए काम कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव में मतदान के जरिए भी इस रिश्‍ते पर फैसला सुनाएंगे।

Friday 11 April 2014

दंभी बिल्ली की उड़ी खिल्ली


तो दोस्तों, फिर याद आई घमंडी बिल्ली की कहानी !
शेर था राजा, पर बिल्ली समझती थी खुद को रानी !
चंद गलियों में बिल्ली करती थी राज
कुछ चूहे पकड़ने से बनने लगी थी खास
लोग करने लगे थोड़ी तारीफ
उसे मिलने लगा दूध-रोटी का ग्रास
बिल्ली का बढ़ा दंभ,घटने लगी साख
वह खुद को समझने लगी सयानी।

उसे लगा कि अब वह शेर से लड़ा सकती है पंजा,
गलियों की रानी जंगल पर कस सकती है -शिकंजा!
वक्त ऐसा भी आया, उसने शेर को सामने पाया
वनराज की दहाड़ से बिल्ली का सिर चकराया !

खिसकने लगी पैरों तले की जमीन,
जंगल का राज तो क्या मिलता, उड़ी आंखों की नींद !
लोगों ने समझाया, सपना देखना अच्छा,
लेकिन अहंकार दे सकता है गच्चा!

शेर से लोग कर रहे थे प्यार,
बिल्ली का गुस्सा हो रहा था आपे से पार,
उसने सोचा करेगी वो अपने तीर से वार!
पर शेर तो शेर है और बिल्ली तो बिल्ली,
जनता उड़ा रही हताशा की खिल्ली,
क्योंकि शेर तो अब चल पड़ा है राजधानी दिल्ली!

तो दोस्तों सबको समझना चाहिए कौन है शेर,
बिल्ली शेर नहीं, तो लग रहे खट्टे अंगूर
इस चक्कर में कर ली इतनी मुठभेड़
पर मौसी अब तो हो गयी न इतनी देर?
 अब आएगा दिल्ली में भारत का शेर !

तो बिल्ली मौसी, अब मानो तुम हार,
झूठे दिल से ही सही, कह दो एक बार,
अबकी बार मोदी सरकार।

Thursday 10 April 2014

कम्युनिस्टों से मिल कर बिहार को बंगाल जैसा कंगाल बनाना चाहते हैं नीतीश


 अंग्रेजी में कहावत है ''Man is known by the company he keeps" यानी आदमी की पहचान उसकी संगत से होती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वामपंथियों की संगत में पड़ गए हैं। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से प्रत्यक्ष गठबंधन और नक्सली संगठनों से गुप्त दोस्ती के चलते वे पूंजी को गाली दे रहे हैं। ये वही वामपंथी हैं, जिन्होंने पूंजी के प्रति अपने निंदा भाव के चलते 34 साल में पश्‍िचम बंगाल को कंगाल कर दिया। वहां की जनता उद्योग-व्यापार ठप पड़ने के कारण रोजगार के लिए तरस गई।

कम्युनिस्टों के दोस्त नीतीश कुमार रोजगार और खुशहाली लाने वाली पूंजी को 'आवारा' बता रहे हैं, जबकि मुख्यमंत्री के रूप में वे बिहार में पूंजी लाने के लिए दिल्ली से मुंबई तक दौड़ लगाते हैं। चुनाव के समय पूंजी को कोसना और सरकार चलाने के लिए उसे पुचकारना, इस दोहरे चरित्र के कारण नीतीश सरकार की साख समाप्त हो चुकी है। पिछले नौ महीने से राज्य में कोई पूंजी निवेश नहीं हुआ है।

बिहार में जब तक भाजपा सरकार में थी, निवे’कााें को यहां करोबार करने लायक माहौल मिलने का भरोसा था, लकिन अब तो भाकपा की दोस्ती से चुनाव जीतने के लिए पूंजी को खुलकर गाली दी जा रही है। इस मानसिकता के कारण जद-यू की सरकार के रहते कोई निवेशक बिहार में पूंजी नही लगा सकता। यह रवैया राज्य के आर्थिक विकास में बाधक है। भविष्य में भी निवेश कराना कठिन होगा।

भाजपा के सरकार से हटते ही विकास ठप्प हो चुका है और अब भाकपा से दोस्ती कर नीतीश कुमार फिर बिहार से पूंजी पलायन का माहौल बना रहे हैं। इस लोकसभा चुनाव में लागों को तय करना है कि वे खुशहाली, पूंजी, उद्योग-व्यापार और रोजगार को बढ़वाा देने वाले एन.डी.ए. गठबंधन को सत्ता में देखना चाहते हैं, या उन्हें जो बंगाल की तरह कंगाल बनाना चाहते हैं।

Tuesday 8 April 2014

भारी मतदान से दें नक्सली हिंसा का जवाब

(प्रशासनिक लापरवाही से औरंगाबाद में गई जवानों की जान)

यह दुखद है कि हिंसा से बदलाव की सोच दुनिया भर में बेमानी होने के बावजूद नक्सली संगठन बिहार समेत कई राज्यों में बारूद और बंदूक का रास्ता नहीं छोड़ने पर आमादा हैं। दूसरी तरफ भारत में लोकतंत्र लगातार मजबूत हो रहा है। राज्य के नक्सली आतंक वाले इलाके की चुनाव सभाओं में भी भीड़ हो रही है। ऐसे में लोगों को पूरे हौसले के साथ मतदान कर नक्सली हिंसा का जवाब देना चाहिए। मौका 10 अपैल से शुरू हो रहा है। 

चुनाव बहिष्कार की अपील करना, हमले करना और बारूदी सुरंग बिछाना, लोकतंत्र विरोधी कार्रवाई है, लेकिन उग्रवाद की चुनौती के विरूद्ध सरकार की कमजोरी भी बार-बार सामने आती है। सुरक्षा बल के जवान बारूदी सुरंग हटाने और बम निष्क्रिय करने जैसी प्रक्रिया में जान गवां रहे हैं। उचित प्रशिक्षण और विस्फोट-प्रूफ जैकेट की कमी है।

सोमवार को औरंगाबाद जिले के ढिबरा थाना क्षेत्र में बारूदी सुरंग हटाने के दौरान विस्फोट में सी.आर.पी.एफ. के एक डिप्टी कमांडेन्ट और दो जवानों को शहादत देनी पड़ी। हर जिले में बम निरोधी दस्ता होता है, फिर औरंगाबाद में बारूदी सुरंग हटाने के लिए उन्हें क्यों नहीं भेजा गया? सवाल यह भी है कि जिन सी.आर.पी.एफ. जवानों को यह खतरनाक टास्क सौंपा गया था क्या वे इसके लिए प्रशिक्षित थे? क्या धमाके से बचाने लायक (ब्लास्ट-प्रुफ) जैकेट से उन्हे लैस किया गया था?

राज्य सरकार नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार को बेअसर करने की पूरी तैयारी का दावा कर रही है लेकिन पहले चरण के मतदान से तीन दिन पहले विस्फोट में जवानों की मौत कई सवाल उठाती है। इससे सबक लेकर प्रशासनिक चुस्ती बढ़ाई जानी चाहिए। 

Monday 7 April 2014

तेजी से बढ़ा एन.डी.ए. का कारवां

(भाजपा-विरोधी अहंकारी नेताओं को झटका)

तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) का एन.डी.ए. में लौटना भाजपा और इसके पीएम प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी के प्रभावी नेतृत्व की बढ़ती स्वीकार्यता का परिचायक है। तेदेपा नेता एन. चन्द्रबाबू नायडू के साथ आने से सीमांध्र और तेलंगाना में ही नहीं, पूरे देश में एन.डी.ए. की ताकत बढ़ेगी। रविवार को हुआ भाजपा-तेदेपा समझौता उन लोगों को करारा झटका है, जो भाजपा को राजनीतिक रूप से अछूत बताकर एन.डी.ए. के बिखरने की कुटिल कामनाए¡ कर रहे थे।

ताजा घटनाक्रम से फिर यह साफ हुआ है कि सांप्रदायिकता नहीं, विकास ही असली मुद्दा है। सांप्रदायिकता को तूल देकर भाजपा को किनारे करने की कोशिश को नाकाम करते हुए एन.डी.ए. का कारवां बढ़ने लगा है। दूसरी तरफ कांग्रेस और जदयू जैसी पार्टियों को दोस्त नहीं मिल रहे हैं। बाजी पलट गई है। कांग्रेस खुद अछूत समझी जा रही है। टी.आर.एस ने इसके साथ विलय करने से इनकार कर दिया है।

दूसरी तरफ मोदी को पीएम प्रत्याशी घोषित करने के बाद से भाजपा को कम से कम दस पार्टियों का समर्थन मिल चुका है। ये दल पहले भी साथ रह चुके हैं। कुछ नए साथी भी हैं। बिहार में रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी, तमिलनाडु की पांच क्षेत्रीय पार्टियां और उत्तर प्रदेश में अपना दल अब एन.डी.ए. के साथ है। महाराष्‍ट्र में शिवसेना समेत तीन दल और पंजाब में अकाली दल भाजपा के साथ मिलकर 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं।

भाजपा के पक्ष में जिस तरह से जन समर्थन बढ़ा है, उसे देखते हुए चुनाव से पहले कुछ और दल एन.डी.ए. से जुड़ सकते हैं। इतिहास दोहराया जाने वाला है। 1996 में हमारे नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तीन दलों के साथ एन.डी.ए. की शुरूआत की थी। लोग मिलते गए और दलों का कारवां 24 तक पहुंच गया। 16वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम एन.डी.ए. 300+ का मिशन पूरा करेंगे। चुनाव बाद बीजू जनता दल और अन्नाद्रमुक भी गठबंधन में लौट सकते हैं। ये दल कभी न कभी भाजपा के मित्र रहे हैं। जनता और उससे जमीनी रि’ता रखने वाले क्षेत्रीय नेताओं को एन.डी.ए. में 'समृद्ध भारत और सशक्त भारत' की संभावना दिख रही है, लेकिन कुछ अहंकारी, परिवार-वादी और भ्रष्ट नेताओं को हवा के इस रूख का अंदाजा नहीं है।

Saturday 5 April 2014

युवाओं को 22 साल पीछे लौटाना चाहती है कांग्रेस

(स्टिंग ऑपरेशन PROXY-WAR का हिस्‍सा)

जिनके पास भ्रष्‍ट और कमजोर सरकार के जरिए महंगाई-बेरोजगारी बढा़ने का अतीत है, हताश वर्तमान है और भविष्‍य में अंधेरा है, वे इस लोकसभा चुनाव में विकास के मुद्दे से जनता को भटकाने के लिए सांप्रदायिकता को उछाल रहे हैं. कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी थोक वोट पाने की हसरत लेकर दिल्‍ली के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी से बयान जारी करवा रही हैं और नफरत की दीवार मजबूत कर रही हैं.

जिस चुनाव में ‘विकसित भारत और मजबूत भारत’ के मुद्दे पर भाजपा लोगों का समर्थन मांग रही है, उसमें 22 साल पुराने सवाल उठाकर युवाओं को छलने की कोशिश हो रही है. इन बार्इस सालों में जो पीढी़ जवान हुई है, उसे सम्‍मानजनक जीविका चाहिए, वह आगे बढना चाहती है, लेकिन कांग्रेस और राजद हर हथकंडे अपना कर उसे धार्मिक कटृरता के दौर में बांधे रखना चाहते हैं. वेब पोर्टल कोबरा पोस्‍ट का कथित स्टिंग ऑपरेशन कांग्रेसी हथकंडे का ताजा नमूना है. यह पोर्टल दरअसल ‘कांग्रेस पोस्‍ट’ है, इसलिए ऐन चुनाव से पहले माहौल बिगाड़ने के लिए इसका इस्‍तेमाल हुआ.

कथित स्टिंग ऑपरेशन के जरिए विपक्षी नेताओं को बदनाम करना और विपक्ष के मुद्दे की धार कुंद करना कांग्रेस के छायायुद्ध (PROXY-WAR) की रणनीति का पुराना हिस्‍सा है. स्टिंग ऑपरेशनों से कांग्रेस के एक मंत्री के रिश्‍ते की बात चर्चा में रही है. अयोध्‍या के विवादित मुद्दे पर स्टिंग ऑपरेशन चुनावी माहौल में कांग्रेस की विफलताओं पर पर्दा डालने की कोशिश है, लेकिन अब तो पार्टी के नेता जयराम रमेश भी मान चुके हैं कि सोनिया- राहुल गांधी की कांग्रेस अवधारणा की लड़ाई हार चुकी है.

देश की तरक्‍की में अपनी हिस्‍सेदारी और अमन-चैन चाहने वाले युवा न बुखारी के बहकावे में आएंगे, न स्टिंग ऑपरेशन, यह उन्‍हें 22 साल पीछे ले जा सकता है. बुखारी ने कांग्रेस और लालू प्रसाद का साथ दिया है, जबकि बिहार के लोग जानते हैं कि इन दोनों ने मिलकर इस राज्‍य की क्‍या हालत की थी. भागलपुर का दंगा भी कांग्रेस-शासन में ही हुआ था. आने वाला समय भाजपा का है, विकास का है.


Friday 4 April 2014

चुनावी फायदे के लिए उग्रवाद पर नरम रहे लालू-नीतीश

जब सरकार का मुखिया सिर्फ कुर्सी बचाने के नजरिये से काम करता हैं, तब कई तरह की समस्याएॅं आती हैं। बिहार में बढ़ती नक्सलवादी हिंसा भी उग्रवादियों के प्रति सरकार के नरम रूख का परिणाम है। यह नरमी चुनाव में मदद पाने के लिए बरती जाती रही है। जनता दल (यू) के एक प्रत्याशी से नक्सलियों की सांठ-गाठ का खुलासा करने वाली सी.आर.पी.एफ. की रिपोर्ट तो सिर्फ एक उदाहरण है।

बिहार के लगभग सभी 38 जिले नक्सली उग्रवाद की चपेट में आ चुके हैं। पहले लालू-राबड़ी की सरकार और अब नीतीश कुमार की सरकार चुनावी फायदे के लिए हिंसा में यकीन रखने वाले माओवादियों से नरमी बरतती रही है। लोकसभा के इस चुनाव में एक नहीं, जद-यू और राजद के कई प्रत्याशियों को नक्सली संगठन मदद दे रहे हो सकते हैं। चुनाव आयोग को इस मुददे पर समुचित पहल करनी चाहिए।

इससे पहले केन्द्रीय गृह मंत्रालय बिहार को नक्सली समस्या के समाधान में समन्वय के अभाव को लेकर सावधान करता रहा है। मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न राज्यों में माओवादी हिंसा की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन बिहार में ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार प्रदेश में गृह विभाग का भी कार्य संभालते हैं, इसलिए उन्हें जवाब देना चाहिए कि नक्सली उग्रवाद रोकने में उनकी सरकार का रिपोर्ट कार्ड इतना निराशाजनक क्यों है।

पिछले साल बिहार पुलिस के एक शीर्ष अधिकारी ने स्वीकार किया था कि सी.आर.पी.एफ. में भी ऐसे लोग हैं, जो नक्सली संगठनों से रि’ता रखते हैं। पुलिस प्रशासन और सत्तारूढ़ दल के लोगों से माओवादियों के मधुर संबंध होना राज्य में उग्रवाद रोकने में बाधक है। जब तक चुनावी फायदे के लिए उग्रवादियों से हमदर्दी रखी जाएगी, लेवी वसूली के नाम पर विकास के काम ठप किये जाते रहेंगे, बच्चों के स्कूल डायनामाइट से उड़ाए जाते रहेंगे और निर्दोष नागरिक ट्रेन-बस या गांव में मारे जाते रहेंगे। जद-यू और राजद बतायें कि लाल-उग्रवाद से उनकी दोस्ती का रंग किसके खून से गाढ़ा हुआ है।

Thursday 3 April 2014

आतंकी का महिमा मंडन शहीदों का अपमान


आतंकी का महिमा मंडन शहीदों का अपमान

आज देश में अगर आतंकवाद एक बड़ी समस्‍या है, तो उसकी जड़ है वोट बैंक के लिए आतंकी का धर्म देखकर उसका महिमा मंडन करना और सुरक्षा एजेंसियों के प्रति अविश्‍वास पैदा करना । कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी का रायबरेली में परचा भरने से पहले दिल्‍ली के शाही इमाम से मिलना और बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार का गुजरात में सुरक्षा एजेंसियों की कार्रवाई पर सवाल उठाना सांप्रदायिक राजनिति का शर्मनाक उदाहरण है।

इशरत जहां के रिश्‍ते आतंकियों से थे। गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में जो पहला हलफनामा दायर किया, उसमें इशरत को आतंकी बताया। उसके साथ मारे गए दो लोग भी आतंकवादी थे। मुंबई हमले में संलिप्‍त हेडली ने पूछताछ के दौरान इसकी पुष्टि की, लेकिन सांप्रदायिकता की राजनीति आतंकियों के बचाव में आ गई।
केन्‍द्र की कांग्रेस सरकार के राजनीतिक दबाव में हलफनामा बदला गया।  उसे आतंकी मानने से परहेज किया गया और बिहार में मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार इशरत को ‘बिहार की बेटी’ बताकर उसका महिमा मंडन करने लगे। सवाल यह है कि अगर इशरत आम नागरिक थी, तो वह आतंकवादियों के साथ क्‍या कर रही  थी ? गुजरात में आतंकियों के खिलाफ सख्‍ती हुई, इसलिए प्रदेश में अमन-चैन कायम हैा  वहां की तरक्‍की से सभी धर्मों के लोगों के घर खुशहाली आ रही है।
बिहार के दरभंगा और मधुबनी में धर्म के नाम पर युवाओं को गुमराह कर यासीन भटकल जैसे आतंकी अपना जाल फैलाते रहे, लेकिन नीतीश सरकार आंखे बंद किये रही।  बोधगया से लेकर पटना तक में सीरियल धमाके हुए। पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को राजनीतिक दबाव में रखा गया है परिणामत: इनकी कार्यक्षमता घटती चली गई।
इशरत जहां मामले में सी0बी0आई0 ने गुजरात सरकार को क्‍लीनचिट दी और बटाला हाउस मुठभेड़ मामले में दिल्‍ली उच्‍च न्‍यायालय ने क्‍लीनचिट दिया, लेकिन आतंकवाद को Political Cover  देने वाले नीतीश कुमार और दिग्विजय सिंह जैसे नेता बाज नहीं आ रहे हैं। केन्‍द्र में मोदी सरकार बना कर Political Cover  देने वालों को करारा जवाब देना जरूरी है।
आतंकवादी और शातिर अपराधी आम लोगों की हत्‍या करते हैं, लेकिन जब वे पुलिस या सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मारे जाते हैं, तब देश का हित ताक पर रखकर राजनीति करने वाले लोग उनके बचाव में आते हैं। ऐसे लोग संदेह का लाभ आतंकियों-अपराधियों को देते हैं और सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल गिराते हैं। ये हत्‍यारों के मानवाधिकार की बात करते हैं, लेकिन उन लोगों के मानवाधिकार का खून उन्‍हें नहीं दिखता, जो इनकी करतूत का शिकार होते हैं।

फर्जी मुठमेड़ एक निंदनीय कार्रवाई है, लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए आतंकी- अपरा‍धी का मजहब देखकर हर साहसिक कार्रवाई को फर्जी बताना भी एक गैर जिम्‍मेदाराना हरकत है। दुर्भाग्‍यवश, मुख्‍यमंत्री और जनप्रतिनिधि जैसी भूमिका में रहने वाले लोग भी आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई को कमजोर करने लगे हैं। इन्‍हें पुलिस, सुरक्षा बल या फौज के जवानों का मरना नहीं दिखाई देता। ऐसे ही नेता कहते हैं कि ‘लोग सेना में तो मरने के लिए ही जाते हैं।’ इशरत जहां को ‘बिहार की बेटी’ बताना और सीमा पर शहीद बिहार के सपूतों के प्रति अपमानजनक बातें कहने वालों को मंत्री बनाए रखना किस मानसिकता का सूचक है ?


लोक सभा के चुनाव में बिहार अपने बहादुर सैनिक के अपमान का भी जवाब देगा।  

आतंकी का महिमा मंडन शहीदों का अपमान


आतंकी का महिमा मंडन शहीदों का अपमान

आज देश में अगर आतंकवाद एक बड़ी समस्‍या है, तो उसकी जड़ है वोट बैंक के लिए आतंकी का धर्म देखकर उसका महिमा मंडन करना और सुरक्षा एजेंसियों के प्रति अविश्‍वास पैदा करना । कांग्रेस अध्‍यक्ष सोनिया गांधी का रायबरेली में परचा भरने से पहले दिल्‍ली के शाही इमाम से मिलना और बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार का गुजरात में सुरक्षा एजेंसियों की कार्रवाई पर सवाल उठाना सांप्रदायिक राजनिति का शर्मनाक उदाहरण है।

इशरत जहां के रिश्‍ते आतंकियों से थे। गृह मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में जो पहला हलफनामा दायर किया, उसमें इशरत को आतंकी बताया। उसके साथ मारे गए दो लोग भी आतंकवादी थे। मुंबई हमले में संलिप्‍त हेडली ने पूछताछ के दौरान इसकी पुष्टि की, लेकिन सांप्रदायिकता की राजनीति आतंकियों के बचाव में आ गई।
केन्‍द्र की कांग्रेस सरकार के राजनीतिक दबाव में हलफनामा बदला गया।  उसे आतंकी मानने से परहेज किया गया और बिहार में मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार इशरत को ‘बिहार की बेटी’ बताकर उसका महिमा मंडन करने लगे। सवाल यह है कि अगर इशरत आम नागरिक थी, तो वह आतंकवादियों के साथ क्‍या कर रही  थी ? गुजरात में आतंकियों के खिलाफ सख्‍ती हुई, इसलिए प्रदेश में अमन-चैन कायम हैा  वहां की तरक्‍की से सभी धर्मों के लोगों के घर खुशहाली आ रही है।
बिहार के दरभंगा और मधुबनी में धर्म के नाम पर युवाओं को गुमराह कर यासीन भटकल जैसे आतंकी अपना जाल फैलाते रहे, लेकिन नीतीश सरकार आंखे बंद किये रही।  बोधगया से लेकर पटना तक में सीरियल धमाके हुए। पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को राजनीतिक दबाव में रखा गया है परिणामत: इनकी कार्यक्षमता घटती चली गई।
इशरत जहां मामले में सी0बी0आई0 ने गुजरात सरकार को क्‍लीनचिट दी और बटाला हाउस मुठभेड़ मामले में दिल्‍ली उच्‍च न्‍यायालय ने क्‍लीनचिट दिया, लेकिन आतंकवाद को Political Cover  देने वाले नीतीश कुमार और दिग्विजय सिंह जैसे नेता बाज नहीं आ रहे हैं। केन्‍द्र में मोदी सरकार बना कर Political Cover  देने वालों को करारा जवाब देना जरूरी है।
आतंकवादी और शातिर अपराधी आम लोगों की हत्‍या करते हैं, लेकिन जब वे पुलिस या सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मारे जाते हैं, तब देश का हित ताक पर रखकर राजनीति करने वाले लोग उनके बचाव में आते हैं। ऐसे लोग संदेह का लाभ आतंकियों-अपराधियों को देते हैं और सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल गिराते हैं। ये हत्‍यारों के मानवाधिकार की बात करते हैं, लेकिन उन लोगों के मानवाधिकार का खून उन्‍हें नहीं दिखता, जो इनकी करतूत का शिकार होते हैं।

फर्जी मुठमेड़ एक निंदनीय कार्रवाई है, लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए आतंकी- अपरा‍धी का मजहब देखकर हर साहसिक कार्रवाई को फर्जी बताना भी एक गैर जिम्‍मेदाराना हरकत है। दुर्भाग्‍यवश, मुख्‍यमंत्री और जनप्रतिनिधि जैसी भूमिका में रहने वाले लोग भी आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई को कमजोर करने लगे हैं। इन्‍हें पुलिस, सुरक्षा बल या फौज के जवानों का मरना नहीं दिखाई देता। ऐसे ही नेता कहते हैं कि ‘लोग सेना में तो मरने के लिए ही जाते हैं।’ इशरत जहां को ‘बिहार की बेटी’ बताना और सीमा पर शहीद बिहार के सपूतों के प्रति अपमानजनक बातें कहने वालों को मंत्री बनाए रखना किस मानसिकता का सूचक है ?

लोक सभा के चुनाव में बिहार अपने बहादुर सैनिक के अपमान का भी जवाब देगा।