Wednesday 30 April 2014

गठबंधन तोड़ने के गुनहगार नीतीश मांग रहे 'मजदूरी'

उस मजदूर को क्या कहेंगे, जो दोस्त के साथ मिलकर मजदूरी-किसानी करे, लेकिन पूरे काम की दिहाड़ी अकेले ही मांगने लगे? मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुछ इसी तरह जनता से अपने काम के बदले वोट मांग रहे हैं। बिहार के मतदाताओं ने 2005 में भाजपा-जदयू गठबंधन (एन.डी.ए.) को 15 साल का जंगल राज खत्म कर विकास करने के लिए सत्ता सौंपी थी। जनादेश के अनुसार दोनों दलों ने मिलकर काम किया। पांच साल में हर तरफ बदलाव नजर आने लगा।

2010 के विधान सभा चुनाव में जब दोनों दलों के गठबंधन ने अपने काम की मजदूरी मांगी, तो जनता ने तीन चौथाई बहुमत दिया। उम्मीद से ज्यादा मजदूरी मिली। एन.डी.ए-2 ने और उत्साह से काम को आगे भी बढ़याा, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की निजी महत्वाकांक्षा अचानक बिहार के हितों से ज्यादा बड़ी हो गई। उन्होंने मिलकर काम करने के जनादेश का अपमान किया। गठबंधन तोड़ दिया गया। धर्मनिरपेक्षता को भाजपा से अलग होने का बहाना बनाया गया। विकास रूक गया।

लोकसभा का चुनाव केंद्र की भ्रष्ट और नकारा यूपीए सरकार से जनता को मुक्ति दिलाने के लिए है। यह युवाओं को रोजगार और देश को मजबूत नेतृत्व देने का अवसर है, लेकिन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद इसे मुख्य मकसद से भटकाने में लगे हैं। लोकसभा चुनाव में राज्य सरकार के काम पर वोट मांगना और सांप्रदायिकता के मुद्दे को तूल देना कांग्रेस की मदद करने की साजिश है। मुख्यमंत्री को गठबंधन तोड़ने और राष्ट्रीय मुद्दों से ध्यान बंटाने की सजा मिलनी चाहिए या आधे काम की मजदूरी? मतदाता ही इसका सही जवाब देंगे।

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