Saturday 3 May 2014

दंगे और लहू का रंग भी बाँटने लगी राजनीति

(106 दंगों के बावजूद अखिलेश-तरूण गोगोई 'कसाई' नहीं)

वोट बैंक की राजनीति आदमी के लहू, पीड़ा के आंसू और दंगों की त्रासदी को भी बांटकर देखने लगी है। असम के कोकराझाड़ में दो दिन के भीतर 32 लोग साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार हुए। राज्य में 15 साल से तरूण गोगोई की सरकार है। वहां साम्प्रदायिक दंगों पर काबू नहीं पाया जा सका है। 2012 के दंगे में 108 लोग मरे गए थे और राज्य के चार लाख से अधिक लोगों को शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर होना पड़ा। इसके बावजूद असम के दंगों को मुद्दा नहीं बनाया गया।

उत्तर प्रदेश में सपा की अखिलेश यादव सरकार के दौरान 106 दंगे हुए। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे में 50 से ज्यादा लोग मारे गए। 40 हजार से अधिक लोग बेघर हुए। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अखिलेश सरकार से जवाब मांगा, लेकिन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद समेत तमाम सेक्यूलर ताकतें खामोश रहीं।

असम की कांग्रेस सरकार के मुखिया तरूण गोगोई और उत्तर प्रदेश के समाजवादी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को लगातार होते दंगों के बावजूद 'कसाई' या 'जल्लाद' नहीं कहा गया। नकली धर्मनिरपेक्षतावादियों ने दंगों को भी 'कम्युनल' और 'सेक्युलर' में बांट रखा है। दंगा अगर गुजरात में हुआ तो 'कम्युनल' और यदि गैरभाजपा प्रदेश में हुआ तो 'सेक्युलर'।

हकीकत तो यह है कि भाजपा ने दंगामुक्त शासन और विकास के लिए काम किया। गुजरात के एक दंगे पर छाती पीटी जा रही है, जबकि 12 साल से वहां कोई दंगा नहीं हुआ। राज्य की जनता ने बार-बार मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त किया। सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में उन्हें न्यायपालिका से क्लीन चिट मिली। गुजरात के विकास से अल्पसंख्यकों के घर भी खु’हालाी आई। इन सारी बातों को दबाने के लिए साम्प्रदायिकता के मुद्दे को तूल दिया जा रहा है। नीतीश कुमार और लालू प्रसाद देश को फिर से कमजोर सरकार देने की कोशिश में भाजपा पर अनर्गल हमले कर रहे हैं। सेक्युलरिज्म के उनके हथियार का दोहरापन सामने आ चुका है।

1 comment:

  1. भाजपा के जाने-माने कद्दावर नेता और प्रख्यात चिकित्सक डॉ० सी पी ठाकुर का यह वक्तव्य कि "भाजपा उन्हें चपरासी समझती है" भाजपा में रह रहे मात्र एक नेता का दर्द नहीं बल्कि इस पार्टी की बिहार इकाई में सवर्णों की वास्तविक स्थिति को प्रदर्शित करता वक्तव्य है. माननीय सुशील मोदी की अगुवाई में केन्द्रीय नेताओं को बरगलाकर बिहार भाजपा ने अघोषित तौर पर पार्टी में सवर्णों को अनवरत मुख्य-धारा की राजनीति से अलग-थलग रखने का कुचक्र अभियान चला रखा है. यहाँ सब कुछ मोदी की मर्जी से होता है, अगर किसी ने विरोध करने की जहमत उठाई तो उसे किनारा लगा दिया जाता है, भय और लोभ वश कुछ सवर्ण नेता सुशील मोदी की चरण-चाकरी कर अपने को नेता होने का भ्रम पाल बैठे हैं. कुछ लोग कहते हैं कि भाजपा का आधार मजबूत करने में सुशील मोदी की मेहनत है. मुझे लगता है सुशील मोदी का अपना जनाधार तो है नहीं फिर पार्टी का जनाधार कैसे बढ़ा सकते हैं. पार्टी को मजबूत, जमीनी पकड़ और लोगों में पैठ रखनेवाले नेता ही कर सकते हैं कोई हवा-हवाई नहीं. विगत चुनावों में अगर बिहार भाजपा को सबसे अधिक सवर्णों का वोट दिलवाया तो वो हैं माननीय सांसद गिरिराज सिंह जी. जिस समय सुशील मोदी ठेहुनिया मारे रहते थे उस समय गिरिराज जी मंत्री पद पर रहते हुए भी तत्कालीन माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार के गठबंधन विरोधी कार्यकलापों का जमकर लगातार खुलेआम विरोध किए थे. सवर्णों के मन-मिजाज और वोट को लगभग पूरी तरह उन्होंने नीतीश जी के पाले से हटाकर बीजेपी के पक्ष में करने में भरपूर भूमिका अदा की. बीजेपी को मजबूत किया माननीय Ashwini Kumar Choubey ने, Chandramohan Rai ने, Janardan Singh Sigriwal ने, Dr. C P Thakur ने. पर संगठन में चाटुकारिता कर निर्णयकर्ता रहे सुशील कुमार मोदी. चंद्रमोहन राय को तो जबरन राजनीतिक संन्यास दे दिया गया और सवर्ण नेता संगठन में इतने निःशक्त हो गए कि मोदी की मनमानी के खिलाफ समय पर किसी ने आवाज तक नहीं उठाई. मैंने पूर्व में भी लिखा है और अपनी बात को पुनः दुहरा रहा हूँ कि दासत्व-भाव के साथ वोट देने से बेहतर विरोध करना होता है. मेरे मन में भी बिहार को नई ऊँचाईयों तक जाते देखने की उत्कट आकाँक्षा है पर यह भी ध्यातव्य है कि यह राज्य के सभी लोगों की सामूहिक जिम्मेवारी है. हमें सामंत कहें और और सामंतवादी व्यवहार आप करें, ऐसा नहीं चलेगा. सवर्णों को एकजुट होकर बिहार भाजपा पर हावी व्यक्तिवाद का विरोध करना चाहिए और नहीं तो फिर एक झटके में इसे मटियामेट कर देने से भी नहीं हिचकना चाहिए. सवर्ण नेताओं की बढ़ती उपेक्षा और बिहार भाजपा को सुशील मोदी द्वारा व्यक्तिगत संपत्ति समझने की भूल इसे बर्बादी के रास्ते ही ले जाएगी. केन्द्रीय नेतृत्व हस्तक्षेप कर इसका समाधान निकाल सकती है नहीं तो आज भी सुशील मोदी से बेहतर नीतीश कुमार ही हैं.

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